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विदेशी मुद्रा क्यों?

विदेशी मुद्रा क्यों?

अपनी ही करंसी क्यों गिराती हैं सरकारें ? कमजोर रुपये के फायदे भी जानें

डॉलर के मुकाबले रुपया बुधवार, 15 दिसंबर को पिछले डेढ़ साल के सबसे निचले स्तर तक गिर गया. यानी एक डॉलर की कीमत 76 रुपये के पार. आपने लोगों को यह कहते भी सुना होगा कि सरकार कुछ करती क्यों नहीं? इसकी सीधी जिम्मेदारी रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) पर आती है. लेकिन कहा यह भी जा रहा है कि सेंट्रल बैंक खुद नहीं चाहता कि रुपये की गिरावट थमे. बल्कि वह तो दिसंबर के अंत तक देसी करंसी को 76.50 रुपये के लेवल तक गिरते देखना चाहता है. वह ऐसा क्यों करेगा भला ? लेकिन ऐसा होता है. दुनिया भर की सरकारें और उनके केंद्रीय बैंक कई बार जान-बूझकर भी अपनी करंसी विदेशी मुद्रा के मुकाबले कमजोर रखते हैं. ऐसा कुछ समय के लिए ही होता है. लेकिन कई बार हालात ऐसे बन जाते हैं कि यह मजबूरी लंबी खिंच जाती है और चाहकर भी करंसी ऊपर नहीं आ पाती. जैसा तुर्की और कई अन्य देशों में देखने को मिल रहा है.
तो क्या अपना रिजर्व बैंक विदेशी मुद्रा क्यों? भी रुपये को चढ़ते नहीं देखना चाहता ? इसके जवाब और इससे जुड़ी तमाम कड़ियां सुलझाने से पहले हम एक अच्छी खबर सुनाते हैं. भारत का निर्यात 1 से 14 दिसंबर के बीच 44.41 फीसदी बढ़कर 16.46 अरब डॉलर पर पहुंच गया। इसमें बड़ा योगदान कमजोर रुपये का भी रहा. एक्सपोर्ट बढ़ने से व्यापार घाटे को काबू करने में भी थोड़ी मदद मिली. यानी गिरता रुपया हमेशा बुरी खबर लेकर नहीं आता. यहीं से हम उन तमाम पहेलियों को सुलझाते चलेंगे, जो किसी भी देश में गिरती करंसी और बढ़ती महंगाई के इर्द-गिर्द घूमती हैं.

गिरता रुपया कैसे बढ़ाता है एक्सपोर्ट ?

मान लीजिए भारत से कोई व्यापारी अमेरिका को लेदर-बैग एक्सपोर्ट करता है. भारतीय मुद्रा का मूल्य 70 रुपये प्रति डॉलर मानकर चलिए। एक बैग की कीमत 1000 रुपये है. अमेरिकी इम्पोर्टर 500 बैग का ऑर्डर देता है और प्रति बैग 1000 रुपये के हिसाब से करीब 7,142 डॉलर का भुगतान कर देता है. सिलसिला चलता रहता है. एक दिन अचानक वह अमेरिकी इम्पोर्टर भारतीय एक्सपोर्टर से कहता है- ' यही बैग मुझे इंडोनेशिया में सस्ता पड़ रहा है. तुम दाम घटाओ'. भारतीय एक्सपोर्टर अपनी लागत और मजबूरियों का हवाला देकर दाम घटाने से इनकार कर देता है. अमेरिकी व्यापारी भारत से माल मंगाना बंद कर देता है. कुछ समय बाद पता चलता है कि रुपये का मूल्य गिरकर 75 रुपये प्रति डॉलर हो गया है. तब वही अमेरिकी व्यापारी भारतीय निर्यातक से फिर माल मंगाना शुरू कर देता है. दाम पुराना ही है, लेकिन अमेरिकी व्यापारी को यह सौदा अब करीब 35,714 रुपये सस्ता पड़ता है. उसे हर कंसाइनमेंट पर 7,142 डॉलर की जगह 6,666 डॉलर विदेशी मुद्रा क्यों? ही देने पड़ते हैं. यानी पहले जितना खर्च में ही वह 35 बैग अतिरिक्त मंगा सकता है. रुपया कमजोर बना रहता है और कई अन्य अमेरिकी इम्पोर्टर भी भारतीय एक्सपोर्टर्स को ऑर्डर देने लगते हैं. बाहर से आने वाले महंगे डॉलर पर भारतीय निर्यातक को जो नुकसान हो रहा था, उसकी भरपाई व्यापार बढ़ने से हो जाती है. लेकिन एक्सपोर्ट की मात्रा बढ़ने से पूरी इकनॉमी में असका असर दिखता है. देश का कुल निर्यात बढ़ने लगता है.

व्यापार घाटे का करंसी कनेक्शन

जब कोई देश बाहर से ज्यादा माल मंगाए और कम माल बाहर भेजे, तब व्यापार घाटे (Trade Deficit) की नौबत आ जाती है. आर्थिक भाषा में इसे नकारात्मक व्यापार संतुलन ( Negative Trade Balance) भी कहते हैं. घरेलू करंसी कमजोर होने से इस मोर्चे पर राहत मिलती है. मसलन, विदेशी करंसी महंगी होगी तो उनके लिए भारत का माल सस्ता होगा और भारतीयों के लिए विदेशी माल महंगा हो जाएगा. यानी इम्पोर्ट के मुकाबले एक्सपोर्ट बढ़ेगा. सरकारी खजाने के मोर्चे पर इससे चालू खाते (Current Account) की सेहत सुधरेगी. यह बात अलग है कि जब देश में बाहरी सामान पर निर्भरता बहुत ज्यादा हो, तो इम्पोर्ट बिल एक सीमा से कम नहीं हो सकता. मसलन, भारत अपनी जरूरत का 83% कच्चा तेल बाहर से आयात करता है. इसके अलावा मोबाइल फोन, खाने का तेल, दलहन, सोना-चांदी, रसायन और उर्वरक का भी बड़े पैमाने पर आयात होता है. रुपया कमजोर होने से ये चीजें देश में महंगी हो जाती हैं. लेकिन दूसरी तरफ भारत से बड़े पैमाने पर कल-पुर्जे, चाय, कॉफी, चावल, मसाले, समुद्री उत्पाद, मीट जैसे सामान का निर्यात होता है. ऐसे में रुपया कमजोर होने से एक्सपोर्ट ऑर्डर बढ़ जाता है. ज्यादा निर्यात यानी ज्यादा डॉलर. ऊपर से महंगा डॉलर अंदर आकर ज्यादा रुपया बन जाता है.

RBI कैसे करता है मनी कंट्रोल ?

भारत में रुपये का मूल्य सरकार तय नहीं करती. यह पूरी तरह फॉरेन एक्सचेंज मार्केट के हवाले होता है. डिमांड और सप्लाई की हालत इसकी कीमत तय करती है. हालांकि साल 1975 तक करंसी रेट में सरकार का दखल खूब हुआ करता था. जैसा कि चीन सहित दुनिया के कई देशों में अब भी होता है. फिर आरबीआई रुपये को गिराने या चढ़ाने में कैसे कारगर हो सकता है? यह सब कुछ इनडायरेक्ट होता है. मसलन, मौजूदा हालात को ले लें, तो पिछले कई महीनों से RBI बड़े पैमाने पर डॉलर की खरीदारी कर रहा है. वह जितना ज्यादा डॉलर खरीदेगा, रुपये पर दबाव बनता जाएगा. वह गिरेगा. आरबीआई के कुल ऐसेटे्स में विदेशी मुद्रा की हिस्सेदारी करीब तीन चौथाई होती है. दिसंबर के शुरू में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 636.9 अरब डॉलर था. विदेशी मुद्रा भंडार में एक्सपोर्ट, बाहर से शेयरों और म्यूचुअल फंड में निवेश, पर्यटन सहित कई स्रोतों से इजाफा होता है. लेकिन जब आरबीआई बड़े पैमाने पर विदेशी मुद्रा खरीदने लगता है तो इसे भंडार में कृत्रिम इजाफे के तौर पर देखा जाता है और देसी करंसी कमजोर पड़ती जाती है. आरबीआई यह भंडार हमेशा के लिए जमा नहीं रखता. मुफीद मौका पाकर बेचता भी है. आखिर उसकी कोशिश भी आर्थिक गतिविधियों, महंगाई और पैसे के प्रवाह को संतुलित रखने की होती है. आरबीआई जब विदेशी मुद्रा की बिकवाली शुरू करता है, तब रुपया मजबूत होने लगता है. फॉरेक्स एक्सपर्ट्स का कहना है कि अगर आरबीआई ने अभी खजाने में जमा डॉलर बेचना शुरू नहीं किया तो दिसंबर के अंत तक रुपया 77 के स्तर को पार कर जाएगा.
रुपये को कंट्रोल करने का दूसरा और पारंपरिक टूल है ब्याज दरें बढ़ाना. आरबीआई अपने पॉलिसी रेट (Repo, Reverse repo, CRR) में जैसे ही इजाफा करेगा, ब्याज दरें बढ़ेंगी. फिर करंसी की किल्लत होगी. रुपये की डिमांड बढ़ेगी. यह डिमांड वैसे तो देखने में घरेलू लगती है, लेकिन बाहर से आने वाले निवेश के चलते यह फॉरेन एक्सचेंज मार्केट में भी रुपये को मजबूती देती है.करंसी मार्केट के जानकारों की मानें तो रुपये के 76.50 के स्तर तक जाते ही आरबीआई हरकत में आ जाएगा और इसे थामने के उपाय करेगा. अब आप यह भी समझ गए होंगे कि आरबीआई जैसी स्वायत्त संस्था की कमान किसी को सौंपने से पहले सरकारें इतनी कसरत क्यों करती हैं. माना विदेशी मुद्रा क्यों? जाता है कि ज्यादातर देशों में रिजर्व बैंक के गवर्नर सरकार के इशारे पर ही पॉलिसी रेट तय करते हैं. भारत में भी आरबीआई गवर्नर की नियुक्ति में राजनीतिक दखल की चर्चा हमेशा होती रहती है.

आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास

चीन से तुर्की तक करंसी कंट्रोल

अपनी करंसी का मूल्य घटाकर ग्लोबल ट्रेड में कैसे खेला जाता है, इसकी सबसे बड़ी मिसाल चीन है. पचास साल पहले ग्लोबल ट्रेड में महज 1% हिस्सेदारी रखने वाला चीन आज दुनिया का सबसे बड़ा एक्सपोर्टर है. ग्लोबल ट्रेड में अमेरिका (8.1 %) और जर्मनी (7.8%) के मुकाबले चीन की हिस्सेदारी (15%) यानी करीब दो गुना है. पीपल्स बैंक ऑफ चाइना (PBOC) चीन में मनी सप्लाई को कंट्रोल करता है. यह सरकार का ही अंग माना जाता है. पिछले कुछ वर्षों में चीन की व्यापार नीति का यह अहम टूल रहा है कि डॉलर के मुकाबले अपनी मुद्रा युआन का मूल्य घटाए रखा जाए. इससे उसे अपना एक्सपोर्ट बढ़ाने में खासी मदद मिली. 'दुनिया की फैक्टरी' का तमगा हासिल कर चुके चीन का बुनियादी ढांचा इतना मजबूत है कि वह कम लागत पर ज्यादा से ज्यादा उत्पादन कर सकता है. ऐसे में बेहद कम मार्जिन पर माल बेचते हुए भी बंपर वॉल्यूम के दम पर वह लगातार दुनिया के बाजारों में माल उतार सकता है. उसके निर्यात के मुकाबले आयात कम है. ऐसे में करंसी की कमजोरी का उसे उतना नुकसान नहीं होता, जितना अतिरिक्त एक्सपोर्ट के रूप में फायदा मिल जाता है. पीपल्स बैंक ऑफ चाइना युआन को कॉम्पिटिटिव यानी सस्ता बनाए रखने के लिए ब्याज दरों में कटौती जैसे पारंपरिक टूल भी आजमाता है. तुर्की की करंसी लीरा में इस साल डॉलर के मुकाबले 45 फीसदी की गिरावट देखी गई है. वहां महंगाई और बेरोजगारी चरम पर है. लेकिन प्रेसिडेंट रेचेप तैय्यब अर्दोआन ब्याज दरें कम से कम रखने की अपनी नीति पर अड़े हुए हैं. ऐसे ही दुनिया के कई देश आर्थिक हालात सुधारने खासकर निर्यात बढ़ाने या व्यापार घाटा कम करने के लिए करंसी गिराने का सहारा लेते हैं. कुछ सरकारें अपने कर्ज पर ब्याज भुगतान कम से कम करने के लिए भी इस टैक्टिस का सहारा लेती हैं.

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विदेशी मुद्रा भंडार : कम हुआ देश का खजाना, विदेशी निवेशक निकाल रहे पैसा, यह है वजह

नई दिल्‍ली । देश का विदेशी मुद्रा भंडार (foreign exchange reserves) 26 नवंबर को समाप्त सप्ताह में 2.713 अरब डॉलर घटकर 637.687 अरब डॉलर रह गया. रिजर्व बैंक की ओर से जारी आंकड़े के मुताबिक, इससे पिछले सप्ताह में विदेशी मुद्रा भंडार 28.9 करोड़ डॉलर बढ़कर 640.401 अरब डॉलर हो गया था.

3 सितंबर को रिकॉर्ड लेवल पर पहुंचा था रिजर्व
इसके अलावा तीन सितंबर, 2021 को समाप्त सप्ताह में मुद्रा भंडार 642.453 अरब डॉलर के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया था. शुक्रवार को जारी किये गये भारतीय रिजर्व बैंक के साप्ताहिक आंकड़ों में बताया गया है कि 26 नवंबर को समाप्त समीक्षाधीन सप्ताह में विदेशीमुद्रा भंडार में गिरावट आने की वजह विदेशीमुद्रा आस्तियाों में गिरावट आना था जो कुल मुद्राभंडार का अहम हिस्सा होता है.

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RBI ने जारी किए आंकड़े
रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, सप्ताह के दौरान एफसीए 1.048 अरब डॉलर घटकर 574.664 अरब डॉलर रह गया. डॉलर में अभिव्यक्त किये जाने वाले विदेशीमुद्रा आस्तियों में विदेशीमुद्रा भंडार में रखे यूरो, पौंड और येन जैसे गैर-अमेरिकी मुद्रा के घट बढ़ को भी समाहित किया जाता है.

गोल्ड रिजर्व में भी आई गिरावट
इस दौरान स्वर्ण भंडार का मूल्य 1.566 अरब डॉलर घटकर 38.825 अरब डॉलर रह गया. समीक्षाधीन सप्ताह में अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) के पास विशेष आहरण अधिकार 7.4 करोड़ डॉलर घटकर 19.036 अरब डॉलर रह गया. अंतररराष्ट्रीय मुद्राकोष में देश का मुद्रा भंडार 2.5 करोड़ डॉलर घटकर 5.162 अरब डॉलर रह गया.

विदेशी मुद्रा क्यों?

भारतीय विदेशी मुद्रा भंडार में दर्ज की गई बढ़ोतरी, जानें देश के लिए मुद्रा भंडार की महत्वता

नई दिल्ली: भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 28 अक्टूबर तक सप्ताह में बढ़कर 531,081 मिलियन हो गयाहै।जो 21 अक्टूबर तक सप्ताह में $ 524,520 मिलियन था, जो इस अवधि के दौरान $ 6,561 मिलियन की छलांग दर्शाता है। यह सितंबर 2021 के बाद से सबसे अधिक साप्ताहिक लाभ है। यह आकड़ाभारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के साप्ताहिक सांख्यिकीय पूरक शुक्रवार को दिखाए गए है।

विदेशी मुद्रा रिजर्व क्या है?

विदेशी मुद्रा भंडार में नकद (विदेशी मुद्रा) और सोने जैसी अन्य संपत्तियां शामिल हैं जो किसी भी देश के केंद्रीय बैंकों या अन्य वित्तीय संस्थानों जैसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के पास हैं।

देश विदेशी मुद्रा भंडार क्यों रखते हैं?

देश विभिन्न कारणों से विदेशी नकदी अपने पास रखते हैं। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के अनुसार, विदेशी नकदी का भंडार रखने से देशों को आर्थिक संकट के समय में मदद मिलती है और साथ ही उन्हें अपनी घरेलू मुद्राओं की स्थिरता बनाए रखने में मदद मिलती है। कुछ कारण नीचे सूचीबद्ध हैं:

घरेलू मुद्रा का मूल्य:प्रत्येक देश की घरेलू मुद्राओं की तुलना अमेरिकी डॉलर से की जाती है। इसलिए, यदि चीन अमेरिकी डॉलर का भंडार करता है, तो वह युआन के मुकाबले डॉलर के मूल्य को बढ़ाता है, जिससे चीनी निर्यात सस्ता हो जाता है जो चीनी सामानों की बिक्री को बढ़ावा देता है।

आर्थिक संकट के समय तरलता (LIQUIDITY) :आर्थिक संकट के मामले में, यदि किसी केंद्रीय बैंक के पास विदेशी मुद्रा भंडार है, तो वह स्थानीय मुद्रा के लिए विनिमय कर सकता है ताकि विदेशी मुद्रा क्यों? यह सुनिश्चित हो सके कि घरेलू कंपनियां प्रतिस्पर्धात्मक रूप से आयात और निर्यात जारी रख सकें। स्थानीय मुद्रा के साथ विदेशी मुद्रा भंडार का आदान-प्रदान स्थानीय मुद्रा के मूल्य को उच्च रखने में मदद करता है।

विदेशी निवेशक:जब कोई युद्ध या आंतरिक अशांति छिड़ जाती है, तो यह अक्सर निवेशकों को डराता है और वे अपना पैसा देश से बाहर ले जाना चाहते हैं। इसलिए, जब कोई देश बहुत अधिक विदेशी मुद्रा भंडार रखता है, तो यह निवेशकों के विश्वास को बढ़ाता है और उनके डर को शांत करता है।

ऐसे कई अन्य कारण हैं जिनके लिए कोई देश विदेशी मुद्रा भंडार रखता है और इसमें अंतरराष्ट्रीय वित्तीय दायित्वों को पूरा करना, बड़ी बुनियादी परियोजनाओं को वित्तपोषित करना और पोर्टफोलियो का विविधीकरण शामिल है।

रुपया लगातार गिर रहा है, लेकिन यह वरदान भी साबित हो सकता है

क्या कोई रुपए में गिरावट के सिर्फ दो बुरे नतीजे बता सकता है?

अगर एक अमेरिकी डॉलर (American dollar) 80 रुपए का हो जाता है तो इतनी हाय तौबा क्यों? अगर मेरी दादी आज जिंदा होतीं तो यह भोला सा सवाल जरूर करतीं. वैसे अर्थव्यवस्था का जो हाल है, उसे देखते हुए चारों तरफ से हाय-तौबा मची है. नेताओं से लेकर शेयर मार्केट के सट्टेबाज, और सोशल मीडिया से लेकर क्रिप्टो करंसी के दीवाने नौजवान- हर तरफ से रुपए में गिरावट पर त्राहिमाम-त्राहिमाम की चीख पुकार सुनाई दे रही है.

'लक्ष्मण रेखा' करोगे पार तो नहीं बचेगी सरकार

वैसे मैं किसी को डराना नहीं चाहता, लेकिन अगर रुपए में गिरावट ही आपके लिए कयामत की दस्तक है तो आपने दूसरे खौफनाक मंजर नहीं देखे. विदेशी निवेशकों ने इस कैलेंडर वर्ष में 30 बिलियन डॉलर वापस खींच लिए हैं. भारत को चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में 70 बिलियन डॉलर का व्यापार घाटा हुआ है. हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 50 बिलियन डॉलर गिरकर 600 बिलियन डॉलर हो गया है. करीब 270 बिलियन डॉलर के विदेशी कर्ज का बोझ हमारे कंधों पर है जिसे नौ महीने के भीतर चुकाना है. ऐसे में सोचिए कि डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत 80 के इस पार होगी या उस पार?

चीन और जापान ने अपनी करंसी को जानबूझकर कमजोर रखा

लेकिन मुझे यह '80 का फोबिया' बेहद हास्यास्पद लगता है. मैं सोचता हूं कि इस बात को कितने लोग समझते होंगे कि जापान और चीन ने कैसे जानबूझकर अपनी मुद्राओं की कीमत कम रखी- सिर्फ इसलिए ताकि निर्यात बाजार में उनके उत्पाद धूम मचा सकें.

अब यह तो सभी लोग जानते होंगे कि इन दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं ने पिछले 50 सालों में चामत्कारिक रूप से आसमान छुआ है. बेशक, उनकी आर्थिक कायापलट की दूसरी वजहें भी हैं लेकिन कृत्रिम तरीके से रॅन्मिन्बी और येन के मूल्यह्रास से भी उन्हें बहुत फायदा हुआ. यह भी सच है कि दोनों देशों को ‘करंसी मैन्यूपुलेटर्स’ कहकर बदनाम किया गया, चूंकि पश्चिमी ब्लॉक चोटिल हुआ और उन्हें इन दोनों देशों की मजबूत अर्थव्यवस्थाओं से संघर्ष करना पड़ रहा है.

तो, चीन और जापान ने जानबूझकर अपनी करंसियों को कमजोर क्यों किया? क्योंकि शुरुआती दौर में सस्ती करंसी ने उनके अपने टेक, अप्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्थाओं की ‘हिफाजत’ की. इस बीच उन्हें अपने औद्योगिक आधार को आधुनिक और उत्पादक बनाने के लिए पर्याप्त समय मिल गया.

लेकिन यहां हम अपने आधे-अधूरे ज्ञान का इस्तेमाल रुपये में गिरावट पर अफसोस जताने के लिए कर रहे हैं. इस दौरान हम यह भूल रहे हैं कि चीन ने किस तरह हमें शिकस्त दी है. सोचिए, सिर्फ तीन दशक पहले, हमारी जीडीपी चीन के बराबर थी. उफ्फ हमारी प्रति व्यक्ति आय भी उससे ज्यादा थी. लेकिन आज चीन की अर्थव्यवस्था 20 ट्रिलियन डॉलर की है और हम हर मंच पर अपने 3 ट्रिलियन डॉलर के आसपास की अर्थव्यवस्था का ढिंढोरा पीटने की वजह ढूंढ रहे हैं.

सच कहूं तो अगर अर्थव्यवस्था का विकास ही हमारे लिए राष्ट्रीय गौरव है तो हमें प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने पर जोर देना चाहिए, न कि रुपए को 'मजबूत' रखने पर.

रुपए में गिरावट का नुकसान गिनाइए

क्या कोई मुझे दो, सिर्फ दो वजहें बता सकता है कि रुपए में गिरावट का बुरा नतीजा क्या होगा? मैं देख सकता हूं कि लोगों ने झट से अपने हाथ उठा लिए क्योंकि एक प्रतिकूल प्रभाव तो सार्वभौमिक और निर्विवाद है. रुपये में गिरावट से आयातित वस्तुएं कुछ समय के लिए महंगी हो जाएंगी. तेल की कीमतें, उर्वरक, पूंजीगत वस्तुओं का निवेश सब महंगा हो जाएगा- आयात के लिए ज्यादा कीमत चुकानी पड़ेगी. तो, कोई शक नहीं कि कमजोर रुपये का एक भयानक नतीजा आयातित मुद्रास्फीति है.

चलिए अब यह बताइए कि दूसरा बुरा नतीजा क्या है? खामोशी. बहुत से लोग चुप हो जाएंगे. दूसरा नतीजा. हम्म मेरे ख्याल से, रुपए में गिरावट देश के स्वाभिमान को मिट्टी में मिला देगा.

अरे छोड़िए भी. यह कोई आर्थिक दलील नहीं, सिर्फ एक मूर्खतापूर्ण, राजनीतिक और भावुक टिप्पणी है. क्योंकि कड़वी सच्चाई यह है कि आयात महंगा होने के अलावा, रुपए में गिरावट का ऐसा कोई- मैं दोहराता हूं- ऐसा कोई बहुत बड़ा नुकसान नहीं होने वाला. हां, इसमें बहुत सी अच्छी बातें छिपी हुई हैं, जैसे उच्च निर्यात आय, एसेट्स की कीमत में सुधार, अधिक घरेलू निवेश वगैरह वगैरह.

इसके अलावा, अगर बाजार अच्छा है, और सरकारें घबराती नहीं हैं या जूझने को तैयार रहती हैं ,तो एक ऐसी व्यवस्था कायम होने लगती है जो अपने आप को सुधारती चले. अपनी गलतियों से सीखती रहे. कैसे? ठीक है, मैं समझाता हूं, शुरुआत आपके बाजीगर, यानी गिरते रुपए से.

इसका फायदा है- इसे समझने के लिए कुछ उदाहरण

विडंबना यह है कि एक डॉलर को खरीदने के लिए जैसे-जैसे ज्यादा से ज्यादा रुपये की जरूरत होती है, तो धीरे-धीरे यह पहिया उलटने लगता है. भारतीय एसेट्स और निवेश, जिन्हें पहले 'महंगा' होने के लिए छोड़ दिया गया था, अब आकर्षक लगने लगते हैं. यह साबित करने के लिए हम एक आसान सा उदाहरण दे रहे हैं-

कल्पना कीजिए कि छह महीने पहले, एक विदेशी निवेशक ने शेयर A को 75 रुपये में बेच दिया और एक डॉलर वापस घर ले गया. इसके दो पहलू हैं. एक, A के शेयर की कीमत गिर गई. और दो, रुपया भी गिर गया.

अब दूसरे विदेशी निवेशक, रुपये और शेयर की कीमत में गिरावट (यानी, उनके पोर्टफोलियो की कीमत पर दोहरी मार), दोनों के डर से बिक्री शुरू करते हैं.

कल्पना कीजिए कि इस बिक्री की होड़ में शेयर A की कीमत 75 रुपये से घटकर 60 रुपये हो जाती है, जबकि अब एक डॉलर खरीदने के लिए 80 रुपये की जरूरत है, जो पहले 75 रुपये में उपलब्ध था.

सोचें कि हमारे पहले विदेशी निवेशक के दिमाग में क्या चल रहा है, जिसने शेयर A को 75 रुपये में बेच दिया था और एक डॉलर ले गया था. वह लार टपकाने लगा है. क्योंकि अब, वह शेयर A को लगभग 75 सेंट्स में खरीद सकता है और उसे प्रत्येक डॉलर के लिए 25 सेंट का शुद्ध मुनाफा होगा. यानी अपने लेनदेन में उसे 25% की भारी कमाई हो सकती है.

जैसा कि हमारे आसान उदाहरण से साबित होता है, बिक्री और बाजार से निकासी का चक्र उलट जाएगा. किसी अर्थव्यवस्था में, जैसे-जैसे एसेट्स की कीमतें गिरती हैं, और रुपया भी गिरता है, विदेशी विक्रेता खरीदार बन जाते हैं. अब एसेट्स की कीमतें मजबूत होने लगती हैं, रुपया गिरना बंद हो जाता है, घरेलू निवेश बढ़ जाता है, आयात की जगह घरेलू माल बाजार में उपलब्ध होता है (जिसे आयात प्रतिस्थापन कहते हैं), जीडीपी तेजी से बढ़ती है, सरकार का राजस्व बढ़ता है.

महंगाई जोखिम है पर उससे निपटने में समझदारी दिखानी होगी

लेकिन मुद्रास्फीति एक बड़ा जोखिम बनी हुई है. इसलिए, नीति निर्माता मुद्रास्फीति को काबू में करने के लिए ब्याज दरों में वृद्धि करते हैं. यह खपत और निवेश की मांग को कम करता है. कीमतें बढ़ना बंद हो जाती हैं.

लेकिन विडंबना यह है कि उच्च ब्याज दरों से विदेशी मुद्रा आकर्षित नहीं होती. जैसा कि हमने ऊपर देखा, विदेशी मुद्रा का प्रवाह ज्यादा होता है तो एसेट्स की कीमतें और निवेश बढ़ते हैं. आमदनी तेजी से बढ़ने लगती है. आय बढ़ती है तो मांग भी बढ़ती है.

आर्थिक आत्मविश्वास बढ़ता है तो ब्याज दर का चक्र भी उलटने लगता है, जिससे टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुएं, निर्माण, आवास, पूंजीगत वस्तुओं और अन्य चीजों की मांग बढ़ जाती है. अर्थव्यवस्था में वृद्धि होने लगती है.

स्टॉक की कीमतें, जो रुपए में गिरावट की वजह से गिरने लगी थीं, अब ब्याज की दर कम होने की वजह से बढ़ने लगती हैं. इससे अर्थव्यवस्था में पूंजी निर्माण को और बढ़ावा मिलता है. आय प्रभाव लौटता है, यानी उपभोक्ता की आय में परिवर्तन होने के कारण उत्पाद या सेवा की मांग बदलती है. आखिर में, अगर निवेश और आयात प्रतिस्थापन चतुराई से होता है, तो अर्थव्यवस्था अधिक असरकारक और प्रतिस्पर्धी बन जाती है.

तो, जाहिर है रुपए की कीमत, मुद्रास्फीति की दर, एसेट्स के मूल्य और खपत/निवेश की मांग, सभी सिलसिलेवार होते हैं. A में बदलाव होता है तो B भी बदलता है, और इससे A फिर से बदल जाता है. बाजार खुद को सुधारता चलता है (बेशक, काफी दर्द और तनाव के जरिए).

Transforming India: दुनिया का चौथा सबसे बड़ा विदेशी मुद्रा भंडार भारत के पास

देश में विदेशी मुद्रा भंडार लगातार बढ़ रहा है। यह देश की अर्थव्यवस्था की मजबूती को दर्शाने वाले कई मानकों में से एक है। दुनिया में चीन, जापान और स्विट्जरलैंड के बाद चौथा सबसे बड़ा विदेशी मुद्रा भंडार आज भारत के पास है।

करीब 634 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार

साल 2018-19 में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 411.9 बिलियन डॉलर का रहा था जिसके बाद यह 2019-20 में करीब 478 अरब डॉलर का हुआ। तत्पश्चात 2020-21 में भी विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि दर्ज की गई। यह 577 बिलियन डॉलर पर जा पहुंचा और फिर 31 दिसंबर 2021 तक यह करीब 634 अरब डॉलर तक जा पहुंचा। यानि 2021-22 की पहली छमाही में विदेशी मुद्रा भंडार 600 बिलियन डॉलर के आंकड़े से ऊपर निकल कर 633.6 बिलियन डॉलर के उच्च स्तर पर पहुंच गया था।

32.6 प्रतिशत की वृद्धि

इस अवधि में भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में करीब 32.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। इसी आधार पर नवंबर 2021 तक चीन, जापान और स्विट्जरलैंड के बाद भारत का विदेशी मुद्रा भंडार दुनिया में सबसे ज्यादा रहा। यह भारत की गौरवशाली उपलब्धि है जिस पर हर भारतीय को गर्व महसूस करना चाहिए। आज भारत मजबूत स्थिति में खड़ा है जिसमें पूरे देश का समग्र विकास होता दिखाई दे रहा है।

भारत के विदेशी व्यापार में मजबूती से बड़ा विदेशी मुद्रा भंडार

दरअसल, वर्ष 2021-22 में भारत के विदेशी व्यापार में मजबूती से सुधार हुआ जिसके परिणामस्वरूप भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में भी वृद्धि दर्ज हुई। देश के विदेशी व्यापार के बढ़ने से भारत को विदेशी मुद्रा कमाने का सुनहरा अवसर मिला। सबसे खास बात यह रही कि ये उपलब्धि भारत ने कोविड संकट से लड़ते हुए हासिल की। यानि जब दुनिया के तमाम देश इस महामारी से जूझ रहे थे तब भारत ने स्वयं के प्रयासों से देश की आवाम को विदेशी व्यापार में वृद्धि दर्ज करने को प्रोत्साहित किया। उसी का नतीजा रहा है कि आज भारत कोविड संकट में छाई वैश्विक मंदी से तेजी से उभर रहा है। भारत 2021-22 के लिए निर्धारित 400 बिलियन अमेरिकी डॉलर के महत्वाकांक्षी वस्तु निर्यात लक्ष्य को हासिल करने के मार्ग पर बेहतर तरह से अग्रसर रहा और इस लक्ष्य को हासिल कर दिखाया। 2021-22 में 400 बिलियन डॉलर के एक्सपोर्ट में भारत ने नॉन बासमती राइस, गेहूं, समुद्री उत्पाद, मसाले और चीनी जैसी चीजों ने जमकर एक्सपोर्ट किया। उसके बाद पेट्रोलियम प्रोडक्ट यूएई निर्यात किए गए। साथ ही अन्य देशों में रत्न और आभूषणों का भी ज्यादा निर्यात किया गया। केवल इनता ही नहीं भारत ने इस बीच बांग्लादेश को ऑर्गेनिक और नॉन ऑर्गेनिक केमिकल निर्यात किया और ड्रग्स और फार्मास्युटिकल्स का सबसे ज्यादा निर्यात नीदरलैंड को किया। इससे देश के विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि में काफी मदद मिली। विदेशी मुद्रा भंडार के बढ़ने से अर्थव्यवस्था को बहुत से फायदे होते हैं।

रुपए को मिलती है मजबूती

रिजर्व बैंक के लिए विदेशी मुद्रा भंडार काफी अहम होता है। आरबीआई जब मॉनिटरी पॉलिसी तय करता है तो उसके लिए यह काफी अहम फैक्टर साबित होता है कि उसके पास विदेशी मुद्रा भंडार कितना है। यानि जब आरबीआई के खजाने में डॉलर भरा होता है तो देश की करेंसी को मजबूती मिलती है।

आयात के लिए डॉलर रिजर्व जरूरी

जब भी हम विदेश से कोई सामान खरीदते हैं तो ट्रांजेक्शन डॉलर में होती है। ऐसे में इंपोर्ट को मदद के लिए विदेशी मुद्रा भंडार का होना जरूरी है। अगर विदेश से आने वाले निवेश में अचानक कभी कमी आती है तो उस समय इसकी महत्ता और ज्यादा बढ़ जाती है। भारत बड़े पैमाने पर आयात करता रहा है लेकिन बीते कुछ साल में पीएम मोदी के नेतृत्व में देश ने अपने आयात स्तर को कम करके निर्यात स्तर को बढ़ाया है। पीएम मोदी के ‘आत्मनिर्भर भारत’ के दिखाए रास्ते पर देश अब चल पड़ा है तभी तो आज भारत का विदेशी मुद्रा भंडार लगातार बढ़ रहा है।

FDI में तेजी के मिलते हैं संकेत

अगर विदेशी मुद्रा भंडार में तेजी आती है तो इसका मतलब होता है कि देश में बड़े पैमाने पर एफडीआई आ रहा है। ऐसे में अर्थव्यवस्था के लिए विदेशी निवेश बहुत अहम होता है। अगर विदेशी निवेशक भारतीय बाजार में पैसा लगाते रहे हैं तो दुनिया के लिए यह संकेत जाता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर उनका भरोसा बढ़ रहा है। भारत सरकार ने इसके लिए भी देश में बीते कुछ साल में बेहतर माहौल तैयार किया है। केंद्र सरकार ने देश में ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ का माहौल प्रदान किया। ईज ऑफ डूइंग बिजनेस एक तरह का इंडेक्‍स है। इसमें कारोबार सुगमता के लिए कई तरह के पैमाने रखे गए हैं। इनमें लेबर रेगुलेशन, ऑनलाइन सिंगल विंडो, सूचनाओं तक पहुंच, पारदर्शिता इत्यादि शामिल हैं। देश में इसे उद्योग एवं आंतरिक व्यापार संवर्द्धन विभाग (डीपीआईआईटी) तैयार करता है। आज भारत इस लिहाज से भी काफी सुधार कर चुका है। यही कारण है कि विदेशी निवेशक अब भारत में निवेश को तैयार खड़े हैं।

विदेशी ऋण

सितम्बर, 2021 के अंत में भारत का विदेशी ऋण 593.1 बिलियन डॉलर था जो जून, 2021 के अंत के स्तर पर 3.9 प्रतिशत से अधिक था। आर्थिक समीक्षा में मार्च, 2021 के अंत में भारत के विदेशी ऋण ने पूर्व-संकट स्तर को पार कर लिया था लेकिन यह सितम्बर, 2021 के अंत में एनआरआई जमाराशियों से पुनरुत्थान की मदद और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा वन-ऑफ अतिरिक्त एसडीआर आवंटन की मदद से दृढ़ हो गया। कुल विदेशी ऋण में लघु अवधि ऋण की हिस्सेदारी में थोड़ी सी गिरावट जरूर आई। यह हिस्सेदारी जो मार्च, 2021 के अंत में 17.7 प्रतिशत थी सितम्बर के अंत में 17 प्रतिशत हो गई। समीक्षा यह दर्शाती है कि मध्यम अवधि परिप्रेक्ष्य से भारत का विदेशी ऋण उभरती हुई बाजार अर्थव्यवस्था के लिए आंके गए इष्टतम ऋण से लगातार कम चल रहा है।

भारत की लचीलापन

आर्थिक समीक्षा यह दर्शाती है कि विदेशी मुद्रा भंडार में भारी बढ़ोतरी से विदेशी मुद्रा भंडारों से कुल विदेशी ऋण, लघु अवधि ऋण से विदेशी विनिमय भंडार जैसे बाह्य संवेदी सूचकांकों में सुधार को बढ़ावा मिला है। बढ़ते हुए मुद्रा स्फीति दबावों की प्रतिक्रिया में फेड सहित प्रणालीगत रूप से महत्वपूर्ण केंद्रीय बैंकों द्वारा मौद्रिक नीति के तेजी से सामान्यीकरण की संभावना से पैदा हुई वैश्विक तरलता की संभावना का सामना करने के लिए भारत का बाह्य क्षेत्र लचीला है।

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