निवेश करने दो प्रमुख तरीके

पावर डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों का नुकसान 2021-22 में घटकर 17 फीसदी पर पहुंचा
सरकार के पावर डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों (DISCOMS) की स्थिति में सुधार के लिये उठाये गये कदमों का असर दिखने लगा है। डिस्कॉम का कुल तकनीकी और वाणिज्यिक नुकसान 2021-22 में घटकर 17 प्रतिशत पर आ गया जो इससे बीते वित्त वर्ष में 22 प्रतिशत था। बिजली मंत्रालय ने सोमवार को एक बयान में यह जानकारी दी।
कुल तकनीकी और वाणिज्यिक (एटी एंड सी) नुकसान में कमी से वितरण कंपनियों की वित्तीय स्थिति में सुधार होता है। इससे वे वितरण प्रणाली का रखरखाव बेहतर तरीके से कर सकती हैं और जरूरत के अनुसार तथा उपभोक्ताओं के लाभ में बिजली खरीद कर सकती हैं।
बयान के अनुसार, एटीएंडसी नुकसान में कमी से आपूर्ति की औसत लागत (एसीएस) और हासिल होने लायक औसत राजस्व (एआरआर) के बीच अंतर कम हुआ है। सब्सिडी प्राप्ति के आधार पर एसीएस-एआरआर के बीच अंतर 2020-21 में 69 पैसे प्रति किलोवॉट था जो 2021-22 में कम होकर 22 पैसे किलोवॉट हो गया। इसमें नियामकीय आय और उदय योजना के तहत अनुदान शामिल नहीं है।
कुल तकनीकी और वाणिज्यिक (एटीएंडसी) नुकसान और औसत आपूर्ति लागत-प्राप्त होने वाली औसत आय, वितरण कंपनियों के प्रदर्शन का प्रमुख संकेतक है। बयान के अनुसार, वित्त वर्ष 2021-22 के लिये 56 वितरण कंपनियों के आंकड़ों के प्रारंभिक विश्लेषण से पता चलता है कि एटीएंडसी नुकसान 2021-22 में उल्लेखनीय रूप से घटकर 17 प्रतिशत पर आ गया जो 2020-21 में 22 प्रतिशत था। इन वितरण कंपनियों का ऊर्जा (इनपुट एनर्जी) में योगदान 96 प्रतिशत था। बिजली मंत्रालय ने वितरण कंपनियों के प्रदर्शन में सुधार के लिये कई कदम उठाये हैं।
मंत्रालय ने चार सितंबर, 2021 को पावर फाइनेंस कॉरपोरेशन (पीएफसी) और आरईसी लिमिटेड के लिये मानदंडों को संशोधित किया था। इसका मकसद यह सुनिश्चित करना था कि घाटे में चल रही डिस्कॉम दोनों कंपनियों से तब तक वित्तपोषण प्राप्त नहीं कर पाएंगी जब तक कि वे निश्चित समयसीमा में घाटा कम करने के लिये कार्ययोजना नहीं बनाती हैं और इसके लिये अपने संबंधित राज्य सरकारों से प्रतिबद्धता हासिल नहीं करती हैं।
मंत्रालय ने यह भी निर्णय किया कि वितरण व्यवस्था को मजबूत करने के लिये किसी भी योजना के तहत भविष्य में कोई भी सहायता घाटे में चल रही डिस्कॉम को तभी उपलब्ध होगी जब वह अपने कुल तकनीकी और वाणिज्यिक नुकसान / एसीएस-एआरआर अंतर को एक निश्चित समयसीमा के भीतर निर्धारित स्तर तक लाने का प्रयास करती हैं।
संशोधित वितरण क्षेत्र योजना (आरडीएसएस) के अंतर्गत यह प्रावधान किया गया कि कोष तभी उपलब्ध होगा जब डिस्कॉम घाटे में कमी लाने को लेकर प्रतिबद्धता जताए और जरूरी कदम उठाए। इसके अलावा, मंत्रालय ने नुकसान कम करने के उपाय करने के लिये आरडीएसएस के तहत आवश्यक वित्त प्रदान करने को लेकर वितरण कंपनियों के साथ काम किया है।
Bhopal News : अपनी मांगों को लेकर सड़कों में उतरेंगे संविदा कर्मचारी, सात दिसंबर से पूरे प्रदेश में प्रदर्शन शुरू करने की तैयारी
Bhopal News : स्वास्थ्य विभाग के संविदा कर्मचारी एक बार फिर से प्रदेश सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने को तैयार हैं। इसके लिए संविदा स्वास्थ्य कर्मचारी संघ ने चरणबद्ध तरीके से आंदोलन कि रूप रेखा तैयार की है।
Bhopal News : भोपाल(नवदुनिया प्रतिनिधि)। स्वास्थ्य विभाग के संविदा कर्मचारी एक बार फिर से प्रदेश सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने को तैयार हैं। इसके लिए संविदा स्वास्थ्य कर्मचारी संघ ने चरणबद्ध तरीके से आंदोलन कि रूप रेखा तैयार की है। इसके लिए 7 दिसंबर से आंदोलन को शुरू कर दिया जाएगा। जिसमें संविदा कर्मचारी निवेश करने दो प्रमुख तरीके दो सूत्रीय मांगों को लेकर आंदोलन करेंगे। इस आंदोलन में प्रदेशभर के संविदा डाक्टर, मेडिकल स्टाफ और पैरामेडिकल स्टाफ प्रदर्शन में शामिल हो सकता है। जिसे लेकर तैयारियां की जा चुकी हैं।
यह संविदा स्वास्थ्य कर्मचारियों की मांग
- मध्यप्रदेश के राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के संविदा स्वास्थ्य कर्मचारियों को अन्य राज्यों की भांति नियमित करने की मांग होगी। 5 जून 2018 की नीति लागू कर उसके अनुसान नियमित कर्मचारियों का न्यूनतम 90 प्रतिशत वेतन एवं अन्य सुविधाऐं दिलाए जाने की मांग करेंगे।वहीं 2018 से एरियर्स देने की मांग की जा रही है।
-राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन सपोर्ट स्टाफ को आउट सोर्सिंग से हटाकर तत्काल एनएचएम में वापस लिया जाने की मांग की गई है। इसके साथ बी- माक लेखापाल, मलेरिया एमपीडब्ल्यू व अप्रेजल से निष्काशित कर्मचारियों को तत्काल एनएचएम में वापस लिये जाने संबंधित आदेश प्रदान करे।
सरकार नहीं मानी तो यह करेंगे
- 7 - 8 दिसंबर 2022 को प्रदेश के सभी जिला मुख्यालयों सोशल मीडिया माध्यम से आंदोलन की रूपरेखा की जानकारी प्रसारित करेंगे।
- 9 - 10 दिसंबरको प्रदेश के सभी मंत्री, सांसद, विधायक, कलेक्टर और सीएमएचओ और अन्य जनप्रतिनिधियों दो सूत्रीय मांग पत्र की जानकारी व आंदोलन की रूपरेखा ज्ञापन के माध्यम से दी जाएगी ।
- 12 दिसंबर को प्रदेश के सभी जिला मुख्यालयों में शहर के प्रमुख स्थानों पर काले गुब्बारे छोड़े जायेंगे।
- 13 तारीख व्यापक स्तर पर शोसल मिडिया अभियान चलाते हुए इंटरनेट मीडिया के माध्यम से मांग पत्र पर हेतू शासन का ध्यान आकर्षित कराया जायेगा ।
- 14 दिसंबर को प्रदेश के समस्त जिलों में अपनी जिला स्तरीय बैठकों का आयोजन कर आंदोलन में सतप्रतिशत कर्मचारियों की उपस्थिति सुनिश्चित करेगें। सरकार सुनवाई नहीं करती तो 15 दिसंबर से 32 हजार एनएचएम के संविदा स्वास्थ्य कर्मचारी अनिश्चितकालीन कलम बद्ध हड़ताल पर जाने के लिए बाध्य होंगे।
फैक्ट फाइल
प्रदेश में स्वास्थ्य संविदा कर्मचारियों की िस्थति
डाटा एंट्री आपरेटर: 3200
- ऐसे कुल 32 हजार कर्मचारी हैं।
इनका कहना है
हम चरणबद्ध तरीके से आंदोलन कर रहे हैं, इसकी शुरूआत 7 दिसंबर से कर देंगे। हमारी मांग नहीं मानी गई तो 15 दिसंबर के बाद शासकीय अस्पतालों में संविदा कर्मचारी काम बंद कर देंगे।-
डा.जितेंद्र भदौरिया, कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष संविदा स्वास्थ्य कर्मचारी संघ
Investment: हर महीने 1000 रुपये का निवेश करके बनाएं लाखों रुपए, जानिए तरीका
कभी-कभी जब फाइनेंसियल गोल्स पहले से ही ट्रैक पर होते हैं, तो निवेशक अक्सर कंफ्यूज हो जाते हैं कि अब वह यह अतिरिक्त धन ( invest your income) का निवेश कैसे करें।
कभी-कभी जब फाइनेंसियल गोल्स पहले से ही ट्रैक पर होते हैं, तो निवेशक अक्सर कंफ्यूज हो जाते हैं कि अब वह यह अतिरिक्त धन ( invest your income) का निवेश कैसे करें। “यह कुछ लोगों को बेतुका लग सकता है, लेकिन ऐसे मामले अक्सर होते हैं जब डिस्पोजेबल आय अधिक होती है। और, इससे निपटने का सबसे अच्छा तरीका वित्तीय रूप से अपने लक्ष्यों को और सुरक्षित करना है," बता दें कि, सेबी-रजिस्टर्ड (SEBI-registered ) इंवेस्टेसमेंट एडवाइजर और संस्थापक (investment advisor and founder,) सुरेश सदगोपन, लैडर7 फाइनेंशियल एडवाइजरी (Financial Advisory) ने यह सुझाव दिया है।
उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि, जब कोई अपने बच्चे की शिक्षा के लिए पहले से ही लागत का अनुमान लगाता होगा जैसे वह किसी संस्थान में इंजीनियरिंग या चिकित्सा करेगा उस पर निवेश जोड़ेगा लेकिन वास्तव में, वह कुछ कुछ कोर्स भी चुन सकता है। यह जितना अनुमान लगाया गया है, उससे कहीं अधिक महंगा भी तो हो सकता है।"
इसी तरह, रिटायरमेंट के लिए, लोग ब्याज दरों, इन्फ्लेशन आदि जैसी भविष्य की धारणाओं के आधार पर लक्ष्य की ओर बचत करते हैं। हालांकि, ये कारक हमारी धारणाओं से भिन्न हो सकते हैं। इसलिए, बड़ा कॉर्पस रखना हमेशा बेहतर होता है।
यदि आपके पास अभी कोई वित्तीय लक्ष्य नहीं है, तो आप हमेशा एक लक्ष्य बना कर रखे हैं। उदाहरण के लिए, अपने पैसे को दोगुना करना। जैसे अगर आप ₹20,000 प्रति माह 12% की दर से निवेश करते हैं, तो 125 महीनों में आपका पैसा दोगुना हो जाएगा। इसलिए यदि आप इस तरह के समान लक्ष्य निर्धारित करते हैं, तो पैसो का आप उचित तरीके से आगे के लिए इस्तेमाल कर सकते है।
सामाजिक-आर्थिक मामलों में बहुत ही खराब हालात में बिहार, दोषी कौन?
बिहार के 50 प्रतिशत लोग गरीब हैं। हर पैमाने पर राज्य लगातार पिछड़ रहा। इन सबके लिए आखिरकार किस तरह की नीति पर उंगली उठानी चाहिए?
मोहन गुरुस्वामी
यह निर्विवाद है कि बिहार भारत में सबसे गरीब और सबसे पिछड़ा राज्य है। तथ्य अपने आप बोलते हैं। लेकिन इस स्थिति को यह बात अनूठी बनाती है कि बिहार भारत में एकमात्र राज्य है जहां गरीबी के पैमाने सभी उपक्षेत्रों में समान रूप से उच्चतम स्तर- 46 से 70 प्रतिशत तक हैंः बिहार में वार्षिक वास्तविक प्रति व्यक्ति आय 3,650 रुपये है जो 11,625 रुपये के राष्ट्रीय औसत का लगभग एक तिहाई है। बिहार भारत का ऐसा भी अकेला राज्य है जहां बहुसंख्यक आबादी- 52.निवेश करने दो प्रमुख तरीके 47 प्रतिशत निरक्षर है।
लेकिन बिहार के पास चमकीले निशान भी हैं। इसकी नवजात मृत्यु दर 1,000 में 62 ही है जो राष्ट्रीय औसत- 1,000 में 66 से कम है। लेकिन जानना रोचक है कि यह यूपी (83) और ओडिशा (91)-जैसे राज्यों से ही नहीं बल्कि आंध्र प्रदेश और हरियाणा (दोनों 66)-जैसे राज्यों से भी बेहतर है। जीवन प्रत्याशा की दृष्टि से भी औसत बिहारी पुरुष एक साल ज्यादा- 63.6 साल जीता है और पिछले तीन साल के दौरान बढ़ते जीवन काल में राज्य की उपलब्धि दूसरों की तुलना में बेहतर रही है। बिहार में 70.4 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि है और प्रति हेक्टेयर पैदावार 1,679 किलोग्राम है जो राष्ट्रीय औसत- 1,739 किलोग्राम से कम है। फिर भी, यह कर्नाटक और महाराष्ट्र-जैसे कुछ बड़े कृषि राज्यों समेत छह अन्य राज्यों से बेहतर है। इनके बावजूद कुल मिलाकर सामाजिक-आर्थिक मामलों में बिहार साफ तौर पर बहुत ही खराब हालात में है।
पिछले तीन साल के दौरान अखिल भारतीय प्रति व्यक्ति विकासात्मक खर्च 7,935 रुपये रहे हैं। इसके उलट बिहार का यह खर्च 3,633 रुपये रहा है। विकास खर्च राष्ट्रीय राजस्व में राज्य की भागीदारी समेत कई तरह के कारकों पर निर्भर करता है, प्रति व्यक्ति दसवीं योजना आकार को कोई तर्क स्पष्ट नहीं कर सकता जो गुजरात (9289.10 रुपये), कर्नाटक (8260 रुपये) और पंजाब (7681.20 रुपये)-जैसों से एक तिहाई तक कम है। साधारण किस्म का लेकिन ठीक आर्थिक तर्क हमें बताता है कि जब कोई क्षेत्र पिछड़ता जाता है, और यही नहीं बल्कि काफी पिछड़ता जाता है, तो इसकी प्रगति और विकास में अधिक मात्रा में निवेश की जरूरत होती है। यह परिवार में कमजोर या बीमार बच्चे को बेहतर सुपोषण और ज्यादा ध्यान देने की तरह है। सिर्फ जंगली राज्य में ही हम सबसे बलवान के जान बचाने और कमजोर तथा दुर्बल की अनदेखी, वंचित और यहां तक कि उनकी हत्या तक की बात देखते हैं। लेकिन इसके बावजूद हम देखते हैं कि अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति में यह जिस अतिरिक्त सहायता की न सिर्फ पात्रता रखता है बल्कि इसका जो सचमुच देय है, उससे बिहार को व्यवस्थागत तरीके से वंचित किया जा रहा है।
बिहार में दयनीय प्रति व्यक्ति निवेश से यह साफ है कि केन्द्र सरकार फंड से इसे व्यवस्थागत तरीके से तरसा रही है। बिहार ने साफ तौर पर केन्द्र सरकार के साथ लंबे समय निवेश करने दो प्रमुख तरीके तक राजनीतिक तौर पर समन्वय से बाहर रहने का खामियाजा भुगता है। पिछली बार यह अवधि 1992 से 2004 तक की थी। पिछले एक साल से पटना में ऐसा शासन है जिसका नई दिल्ली की सरकार से अच्छा रिश्ता नहीं है। सहायता के मामले में साफ तौर पर वैसे राज्य बहुत बेहतर रहते हैं जिनका राजनीतिक समन्वय बेहतर होता है। आंध्र प्रदेश पर नजर डालें। यह ऐसा राज्य है जिसका बहुत हद तक नई दिल्ली के साथ राजनीतिक समन्वय बना हुआ है। इसे केन्द्र सरकार से 2000 से 2005 के बीच काफी अनुदान मिला है। बिहार को इस दौरान 10,833 करोड़ मिले जबकि आंध्र प्रदेश को 15,542 करोड़ रुपये।
केन्द्र से कुल ऋण के मामले में भी बिहार की अनदेखी हुई है। 2000-02 में इसे 2849.60 करोड़ ही मिले जबकि आंध्र को 6902.20 करोड़ रुपये। सिर्फ केन्द्रीय टैक्सों के प्रति व्यक्ति शेयर में ही बिहार का उसका देय मिला है। केन्द्र सरकार द्वारा घोर उपेक्षा ही है कि बिहार ने 2001 में काफी कम प्रति व्यक्ति केन्द्रीय सहायता (अतिरिक्त सहायता, अनुदान और केन्द्र से कुल ऋण) प्राप्त की। आंध्र प्रदेश को प्रति व्यक्ति 625.60 रुपये मिले जबकि बिहार को काफी निवेश करने दो प्रमुख तरीके कम 276.70 रुपये।
बिहार के आर्थिक तौर पर गला घोंटने के परिणाम को राज्य सरकार के चार प्रमुख विकास प्रयासों में बहुत ही निकृष्ट तरीके से कम निवेश संभावना में देखा जा सकता है। बिहार का सड़कों पर प्रति व्यक्ति खर्च 44.60 रुपये है जो राष्ट्रीय औसत का सिर्फ 38 प्रतिशत है। इसमें राष्ट्रीय औसत 117.80 रुपये है। इसी तरह, सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण में बिहार प्रति व्यक्ति सिर्फ 104.40 रुपये खर्च करता है जबकि राष्ट्रीय औसत 199.20 रुपये है। अब सवाल यह है कि बिहार कितना 'भूल सकता है'? अगर बिहार सिर्फ राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति औसत पाता, तो 10वीं पंचवर्षीय योजना में इसे 48,216.66 करोड़ मिलते जबकि इसे सिर्फ 21,000 करोड़ आवंटित किए गए। यह ट्रेन्ड पहली पंचवर्षीय योजना में ही बन गया था और संचयी कमी अब 80,000 करोड़ से भी अधिक हो गई होगी। यह निवेश करने दो प्रमुख तरीके अब परास्त कर देने वाली बड़ी बात हो गई है। प्रचलित राष्ट्रीय ऋण/उधार अनुपात के लाभ के तौर पर तब इसे बैंकों से ऋण के तौर पर 44,830 करोड़ मिलते, न कि सिर्फ 5635.76 करोड़ जो वास्तविक तौर पर इसे मिले।
इसी तरह, बिहार को वित्तीय संस्थानों से सिर्फ 551.60 रुपये प्रति व्यक्ति का अल्प भाग मिला जबकि इसका राष्ट्रीय औसत प्रति व्यक्ति 4828.80 रुपये है। इसे इस तथ्य में देखा जा सकता है कि बिहार में शायद ही कोई औद्योगिक गतिविधि है। लेकिन नबार्ड से कम निवेश को लेकर कोई तर्क नहीं दिया जा सकता है। 2000 से 2002 तक के संचयी प्रति व्यक्ति आधार पर बिहार को नबार्ड से सिर्फ 119 रुपये मिले जबकि आंध्र को 164.80 रुपये और पंजाब को 306.30 रुपये। यह कोई तर्क नहीं हो सकता कि बिहार में कोई कृषि कार्य नहीं हो रहा है।
अगर वित्तीय संस्थानों ने राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति औसत जितना भी बिहार में निवेश किया होता, तो राज्य को निवेश को 40,020.51 करोड़ रुपये मिलते जबकि इसे वास्तविक तौर पर 4571.59 करोड़ रुपये ही मिले। साफ तौर पर, बिहार को न केवल इसका देय हिस्सा देने से मना किया जा रहा है बल्कि भारत के सबसे गरीब और सबसे पिछड़े राज्य- बिहार से धन लिया भी जा रहा है।
यह सचमुच क्रूर विडंबना ही है। यह चक्र अनैतिक बन जाता है। अन्य राज्यों में यह पूंजी वित्तीय आर्थिक गतिविधि टैक्सेशन का उच्चतर चक्र और वहां परिणामस्वरूप अधिक केन्द्रीय सरकार सहायता लाती है। अगर कोई कठोर भाषा का उपयोग करना चाहे, तो वह कह सकता है कि बिहार का व्यवस्थागत तौर पर शोषण किया जा रहा है और केन्द्रीय फंड के उसके अधिकारी हिस्से से नकारकर उसे नष्ट किया जा रहा है। अब बिहार की जिस तरह की अबाध स्थिति बन गई है, उसे अभी केन्द्र से जितना हिस्सा मिल रहा है, उससे दोगुने की जरूरत है। लेकिन क्या उसे यह मिल पाएगा? तब तक नहीं जब तक बिहार के लोग जगेंगे नहीं और शक्तिशाली ढंग से केन्द्र से वह सब नहीं मांगेंगे जिससे उन्हें 75 साल से वंचित किया जा रहा है!
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